|| ज्योतिषशास्त्र और एक दृष्टी ||


ज्योतिषशास्त्र भारतीय मनीषियों के त्याग , तपस्या ,जनित और बुद्धि की देंन है |ज्योतिषशास्त्र दो भागो में हमें ज्ञान प्राप्त करता है इसका का गणित भाग्य विश्व के मानव के मस्तिष्क की वैज्ञानिक उन्नति की जड़ है और फलित भाग्य उसका फल-फूल है|ज्योतिष अपने विविध भेदों के माध्यम से समाज की सेवा करता आया है| इसने अपने गणित ज्ञान से विश्व को उद्बोधित किया और आकाश में रहने वाले ग्रहों और तारो के बिम्बों,किरणों और प्रभावों का अध्ययन किया | हमारे महर्षियों ने ब्रह्माण्ड रूपी भचक्र में विचरने वाले गगनेचरो को कुंडली के भचक्र के रूप में साक्षातकार कर उसके मध्याम से जनजीवन पर पड़ने वाले उनके प्रभावो का विस्श्लेषण किया | जिसे “फलित ज्योतिष” कहा जाता है |विश्व के शुभाशुभ फलो को दर्शाने वाला शास्त्र “ज्योतिषशास्त्र” कहलाता है ¬–


"प्रयोजनम तु जगतः शुभाशुभ निरुपणं |"


अर्थात—“प्राणियों या वस्तुओ पर ग्रहों का प्रभाव पड़ता है फलतःउसके शुभाशुभो पर प्रभावित करता है दूसरा मत है की प्राणियों के पूरब जन्म कृत शुभाशुभ कार्यो से ग्रह आबध होता है और समय आने पर वह अपनी दशा अनतरदशा मे शभाशुभ फलो को प्रदान करता है यथा -


"ग्रह्बध्म कर्मफलं शुभाशुभं सर्वजन्तनाम |"- वराहमिहिर


ये आचार्य ग्रहों को पूर्व जन्मार्जित कर्मो का सूचक मानते है |अर्थात प्राणी पूर्व जन्म में जो शुभ या अशुभ कर्म करता है वही कर्म इस जन्म में ग्रह के रूप में परिवर्तित होकर प्राणियों को शुभाशुभ कर्म जनित फल बनता है |कुछ विद्वानों का विचार है की ग्रह देवता की शक्ति के अंश के रूप में है | वह देव शक्ति रूपी कर्म के फलो को प्राणी को देता है | इन कथन से स्पष्ट होता है कि ग्रह जनित फल ही प्राणियों को मिलता है .यही कारण है कि प्राणी ग्रहों की शुभाशुभ दशा के भोग काल में अनायास शुभाशुभ फलो को प्राप्त करता है --


"शुभक्षण क्रियारम्भजनिता: पूर्व सम्भवा: |
सम्पद: सर्वलोकानाम ज्योतिस्तत्र प्रयोजनम ||" -सत्याचार्य


ज्योतिषशास्त्र के माध्यम से ग्रहों की दशा और दशाअन्तर काल का ज्ञान कर यह जान ले कि तत्कालिक समय शुभ फल देने वाले ग्रहों का है या अशुभ फल देने वाले ग्रहों का है |इसकी जानकारी होने से हम अशुभ फल देनेवाले ग्रहों के समय वेद पुराणादि में कथित शांति के द्वारा अशुभ फल की निवृति करेगे |____


"तद र्चनाद्वा द्विज्देववंदनाच्छेय: कथाकर्णनतो मखेक्षणात |
होमाज्जपादागमपाठ दांतों न पीडयान्त्यंगभृत:खगामिन: ||"-कालिदास


अर्थात कुछ आचार्य शांति के द्वारा ग्रह कृत दोष का नष्ट होना नही मानते है | उनका विचार है कि प्राणी को अपने पूर्व जन्म कृत पाप-पुण्य जनित फलो को अवश्य भोगना पड़ता है !परन्तु कुछ आचार्यो का मानना है कि कामना ,और ममता के त्याग से ही शांति मिलेगी |


"स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ‘गीता २/७०
निर्ममो निरहंकार: स शान्तिमधिगच्छति "-गीता २/७१


एक अन्य आचार्य ने कहा है.....


"वैद्या वदन्ति कफपितमरुद्विकाराज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिवर्तयन्ति |
भुताभिषनग इति भूतविदो वदन्ति प्रारब्धकर्म बलवन्मुनयो वदन्ति ||"


अर्थात रोगों के उत्पन्न होने में वैद्य लोग कफ-पित और वात को कारण मानते है ,ज्योतिषी लोग ग्रहों को कारण मानते ,प्रेतविद्यालोग भुत-प्रेतों के प्रविष्ट होने का कारण मानते है |परन्तु मुनिलोग प्रारब्ध कर्म को ही बलवान कारण मानते है तात्पर्य है कि अनुकूल अथवा प्रतिकूल परिस्थिति के आने में मूल कारण ‘प्रारब्ध’ है !



........"पूर्वजन्म कृतं कर्म तददैवेमितिचक्षते: |"



इससे सिद्ध होता है कि कार्य की सिद्धि भाग्य और प्रयत्न दोनों से होती है | . फलित ज्योतिष का विस्तार एवं विद्याओ को देखने से ज्ञान होता है कि अनेक महर्षियों ने अपने ज्ञान कला के माध्यम से अन्वेषण किया|सभी आचार्यो ने अपने अपने ढंग से विषय को महत्व देकर कार्य किया | इसी कारण फलित ज्योतिष में जातक ,ताजिक ,संहिता ,केरल ,सामुद्रिक , अंक ,मुहूर्त ,रमल ,शकुन ,स्वर आदिक अनेक भेदों का प्रादुर्भाव हुआ|और ग्रहों,राशियों और नक्षत्रो कि मौलिक प्रकृति गुण,दोष,कारकत्व आदि में लगभग सबो का मतैक्य है पर कथन की विधि,दृष्टि ,योग और दशा आदिक के विचार में सबो में मतान्तर देखने को मिल रहा है ! आचार्यो ने ग्रहों के फल देने वाले समय का जितना सूक्ष्म और सही विवेचन करते थे |आज वह नही हो रहा है इसका कारण स्पष्ट है ज्योतिष शास्त्र का “मर्म” सभी को बतलाने की परम्परा नही आता |फलत: सूक्ष्म फलादेश कि विधि और उसके घटित होने वाले समय कि जानकारी देनेवाली विधि का ज्ञान क्रमस:कुण्ठित होता गया |और ज्ञान पिपासा भी कम होती गई |फलतः क्रमशः उसका ह्रास्य होता गया |और वर्तमान समय में हमने अपनी संस्कार और संस्कृति को छोड़ा है |देश काल जाती के अनुसार सबो की अपनी संस्कृति होती है |जिसके अनुसार मानव अपना जीवन संचालित करता है | सदियों से आई हुई प्रत्येक देश जाती आदि की अपनी रीती रिवाज,रहन सहन,संस्कार,विवाह,पूजा पाठ आदि जिन नियमित तौर तरीके से होते है,उन्हें ही हम लोग संस्कृति तथा सभ्यता कहते है ------



"सम्यक्तया कार्याणि परम्परया आगतानि क्रियते इति संस्कृति |"


संस्कृति कार्यो से गर्भधारण ,पुँसवन,केशांत ,नामकरण .अन्नप्राशन ,चुडाकर्ण ,कर्णवेध आदि आदि सोलहो संस्कार तथा गृहनिर्माण ,गृहप्रवेश ,वास्तु विचार आदि का सब काम अपने समय के अनुसार या शास्त्र के अनुसार नही होने पर हर क्षेत्र में मानसिक सुखा शांति बहुत दूर चले गये है |जिसके चलते व्यक्तिओ का जीवन अस्त व्यस्त हो गया है |समाज और संस्कार काव्यक्ति पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नही रह गया है |साथ ही नवग्रहों का पूजाऔर शांति भी अपरिपक्व व्यक्ति से करने के कारण |व्यक्ति का विचार,सुख,भोग विलास में चला गया है परन्तु शांति इन लोगो से कोसो दूर चला जा रहा है | हमारा कर्तव्य है कि शास्त्र की आज्ञा का पालन करना और प्रारब्ध के अनुसार जो परिस्थिति मिले ,उसमे संतुष्ट रहना है |प्रारब्ध का उपयोग केवल अपनी चिंता मिटाने में है “करने “ का क्षेत्र अलग और “होने “ का क्षेत्र अलग है |हम व्यापर आदि करते है और उसमे लाभ या हानि “होते “ है | “करना “ हमारे हाथ में (वश में )है |’होना “ हमारे हाथ में नही है | इसलिए हमे “करने” में सावधान और “होने” में प्रशन्न रहना है | गीता में


“कर्मण्येवाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचने |
माँ कर्मफलहेतुर्भुर्मा ते संगोअस्त्वकर्मणि ||”-गीता २/४६


अर्थात कर्तव्य –कर्म करने में ही तेरा अधिकार है,फलो में कभी नही | अतः तू कर्म फल का हेतु भी मत बन और तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो |


"तस्माच्छास्त्र्मं प्रमानं ते कार्याकार्यव्य्वास्थितोऊ |
ज्ञात्वाशास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहांर्हसि ||”-गीता १६/२४


अर्थात .तेरे लिए कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्थो में शास्त्र ही प्रमाण है ऐसा जानकर तु इस लोक में शास्त्रविधि नियम कर्तव्य,कर्म करने योग्य है|अर्थात तुझे शास्त्र.विधि के अनुसार कर्तव्य–कर्म करने चाहिए |


हमारे विचार से मनुष्यों को फल.. कर्म,भाग्य और दशा का या ग्रह संयोगो का,या संयोग से ही फल प्राप्ति में सहयोग करता है, देता है, या मिलता है |कर्म की सिद्धि ,फल की प्राप्ति, इष्ट और अनिष्ट फलो की प्राप्ति आदि फल,भाग्य के द्वारा प्राप्ति होने से,अव्यवस्थित होते हुए भी प्रयत्नरूपी पुरुषार्थ में व्यवस्थित होता है|पूर्व जन्म में उपार्जित पुरुषार्थ का नाम भाग्य है|पर्व जन्मार्जित पुरुषार्थ और तात्कालिक पुरुषार्थ मिलकर “महान-फल” को प्रदान करता है.यथा ...


“पूर्वजन्मजनितं पुराविदः कर्म देवमिति सम्प्रचक्षते |
उद्यमेन तदुपार्जित सदा वांक्षितं फलति नैव् केवलम ||”-वसंतराज


पर्व जन्म में किया गया “कर्म “भाग्य कहलाता है वह बीज है | तात्कालिक कर्म उस बीज का जलादि संस्कार है जलादि से संस्कृत उत्तम कोटि का बीज अच्छी तरह उन्नति करता है, कभी क्षीण नही होता है|उसी प्रकार पूर्व जन्म्मार्जित कर्मभूमि,भाग्य सत्य प्रयत्नरूप यज्ञादि शुभ कर्म से अभिवर्द्धित होता है अन्यथा आयु क्षीण होता है |उसी प्रकार मनुष्य आयु से परिपूर्ण रहते हुए भी शांत्यादी यत्न से रहित होकर ग्रह कृत उत्पात से मृत्यु को प्राप्त करता है |उपर्युक्त बातो के माध्यम से प्राणी अपनी शुभ और अशुभ दशा को जानकर तदनुकूल वैदिकादि शुभ अनुष्ठान और सदाचार आदि क्रिया के सम्पादन से कल्याण की उपलब्धि कराता है |तात्पर्य यह कि अशुभ दशा में यज्ञादि के सम्पादन से उस की निवृति और शुभ दशा में शुभ अनुष्ठान के सम्पादन से उसकी वृद्धि होती है


"अप्रार्थितानी दुःखानी यथैवायान्ति देहिनाम |
सुखान्यपि तथा मन्ये पुम्प्रय्त्नो निरर्थकः ||"


इस श्लोक से भाग्य की प्रधानता होती है.पर यह समुचित नही|क्योकि प्रयत्न के अभाव में कोई काम सिद्ध नही होता है मनुष्य अपने रहने के लिए घर,पानी,रास्ता ,पाठशाला.वस्त्र आदि का निर्माण नही करे तो इनकी उपलब्धि भाग्य से नही होगी |मानव के उपभोग्य वस्तु प्रयत्न से ही प्राप्त है न की भाग्य से ...... .


"मन्दिरस्य तू निर्माणम प्रयत्नेन विना नही |
स्वत एवं क्षेम याति तस्मादयत्नस्य मुख्यता ||"


अतः मानव को चाहिए की ग्रह की दशा के माध्यम से व् शकुनादी के माध्यम से अनिष्ट फल देने वाले समय की जानकारी प्राप्त कर तदनुसार उससे बचने के लिए प्रयत्न करे | इस प्रकार करने से मनुष्य कल्याण का भागी बनता है |आयु से परिपूर्ण रहने पर भी जिस तरह तेल बती से परिपूर्ण दीप किसी हवा के अवरोधक वस्तु से अनावृत रहने पर ध्यान देने से ऐसा ज्ञान होता है की भाग्य का कोई स्थान नही है ,केवल पुरुषार्थ ही मनुष्य को सभी सिद्धि का मूल कारण है ||


-डॉ सुनील नाथ झा (ज्योतिर्विज्ञान , लखनऊ विश्वविद्यालय , लखनऊ )

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